इंसानियत की तलाश

इंसानियत की तलाश

घर से जैसे हीं स्कूल को निकली सड़क तक आते-आते तेज़ बारिश शुरू हो गई।
मैं तेज़ कदमों से रेलवेस्टेशन की ओर बढ़ने लगी।
स्कूल जाने के रास्ते मे हीं रेलवेस्टेशन आता था। और इस रास्ते से स्कूल जाना मुझे बहुत रोचक और आसान
रिंकी मिश्रा
रिंकी मिश्रा

लगता था।

तो लगभग इसी रास्ते से आती जाती थी। ज्यो प्लेटफार्म की सीढ़ियों तक पहुँची बारिश बहुत तेज़ हो चुकी थी।
बारिश से बचने के लिए आस-पास बहुत लोग खड़े थे।
मैं भी उनमे शामिल हो गई। और बारिश रुकने की प्रतीक्षा करने लगी
सहसा मेरी नज़र एक वृद्ध भिखारिन पर पड़ी।
गन्दगी और मैला कुचैला होना तो इनकी नियति है।
पर उसे बिल्कुल होशो -हवास भी नही था। उसके सर मे मकड़ियों ने जाले बना रखे थे।
बहुत हीं जर्जर अवस्था में थी।
इंसान कम चिथड़ों की गठर लग रही थी।
फर्क बस साँस की थी।
शायद किसी तकलीफ में थी, बहुत तड़प रही थी।
वो ठण्ड से कपकपां रही थी।
किसी ने उसकी ओर देखा तक नही।
उसकी हालत देखकर मैंने अपना दुपट्टा ओढ़ा दिया।
और अपना टिफिन दे दिया।
उसने टिफिन छुआ और छोड़ दिया। पीड़ा से कराह रही थी। मुझे बहुत ग्लानि होने लगी। उसके मदद को कोई आगे नही आया।
और तो और लोग उसपर फब्तियाँ कसने लगे।
माइ क्यों कष्ट सह रही हो किसी ट्रेन के सामने आकर जान दे देती सभी कष्ट से मुक्त हो जाती।
मेरा गला भर आया।
मैं घर आ गई।
घर आकर पापा को सारी बात बताई।
पापा ने कहा वो बहुत अमीर घराने की औरत थी।
पति के आस्मिक मृत्यु हो जाने से।
घरवालों ने जायदाद की लालच में मारपिट कर मरणासन्न  अवस्था में छोङ दिया। तबसे भीख मांग कर अपना गुजार कर रही है।
निष्ठुर समाज को कोसती में अपने काम में लग गई।
अगले सुबह तैयार होकर स्कूल के लिए निकल पड़ी। उस बुढ़िया के दयनीय हालत का  सामना नही कर सकूँ इसलिए स्कूल आज प्लेटफार्म से ना होकर पटरियों पर से जाने लगी।
ज्यो पटरियों को पार कर मैं आगे बढ़ी पास में एक मन्दिर के पास जहां छोटे से गढ्ढे में बारीश का और पानी और कीचड़ इकठ्ठा था वहां एक इंसानी शरीर कीचड़ में सना पड़ा हुआ था।
मैंने गौर से देखा अरे ये तो वही रेलवे स्टेशन वाली बुढ़िया थी।
जो मृत्यु के बाद भी इंसानी रहमो कर्म से दूर थी। 
उसका लावारिश मृत शरीर जो कीचड़ से लथपथ गढ्ढे में पड़ा इंसान को उसके इंसान होने का आईना दिखा रहा था।
वो मेरी क्या लगती थी। मेरा रग-रग दुखने लगा।
मैंने भी सिवाय ग्लानि के क्या किया किया था।
मैंने आसमान की ओर देखा बूंदा बान्दी हो रही थी।  ईश्वर भी अपनी बनाई हुई दुनियां को
संवेदना शून्य होते देख रो रहा था।
मैंने मन हीं मन ईश्वर से माफी मांगी कहीं ना कहीं मैं भी दोषी थी।
मेरी अंदर की इंसानियत शर्मसार हुई।
मन किया झझकोर दूँ पूरे समाज को
जो इंसान कहलाता है मगर इंसानी परिचय देते वक्त मुक हो जाता है।
खुद को सम्भालती हुई मैं चल पड़ी 
इंसानियत की तलाश में।

यह रचना रिंकी मिश्रा जी द्वारा लिखी गयी है . आप एक गृहणी हैं और स्वतंत्र रूप से साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन में रत हैं . 

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