उनसे यूं ज़ुदा होकर फिर क़रीब आने में – पुरु मालव की ग़ज़ल

उनसे यूं ज़ुदा होकर फिर क़रीब आने में
देर लगती हैं आखिर फ़ासले मिटाने में

कितनी देर लगती है आसमां झुकाने में
लोग-बाग माहिर है उंगलियां उठाने में

किस तरह भला उसने ये जहां बना डाला
दम निकल गया मेरा अपना घर बनाने में

आजमाके तो देखूं एक बार उसको भी
जो य़कीन रखता हो सबको आजमाने में

तेरे सामने सारा रोम जल गया नीरो
तू लगा रहा केवल बांसुरी बजाने में

मुश्किलों से घबरा कर राह में न रुक जाना
ये तो काम आती हैं हौसला बढ़ाने में

दिन सुहाने बचपन के रुठ जायेंगे इक दिन
इल्म ये कहां था पुरु मुझको उस ज़माने में

यह ग़ज़ल पुरु मालव द्वारा लिखी गयी है , जो की शिक्षा विभाग राजस्थान में कार्यरत है। आपकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा संकलनो में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है। समय – समय पर आकाशवाणी द्वारा भी आपकी रचनाओं का प्रसारण होता है।

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