कार्ल मार्क्स की साहित्य सम्बन्धी अवधारणा

कार्ल मार्क्स की साहित्य सम्बन्धी अवधारणा 


कार्ल मार्क्स की साहित्य सम्बन्धी अवधारणा कार्ल मार्क्स ने साहित्य एवं समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध को स्वीकार किया है।चूँकि सामाजिक व्यवस्था का मूल अर्थ है, इसलिए साहित्य का भी मूल अर्थ है। उनके अनुसार साहित्य में भी वर्गवाद और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रधानता है।वे सामाजिक दृष्टिकोण से लोकमंगल के लिए अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हैं।उनके सिद्धान्त का आधार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है।उन्होंने भौतिकवाद का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आनन्दवाद का प्रबल विरोध किया है। 
कार्ल मार्क्स
कार्ल मार्क्स
कार्ल मार्क्स के अनुसार जब व्यक्ति पदार्थ या घटना से प्रभावित होता है, तब वह एक विशिष्ट सौन्दर्य की अनुभूति करता है।इस प्रकार उनके सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका है। वे भिन्न-भिन्न मनुष्यों तथा भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों की सौन्दर्य की अभिरुचि को भिन्न-भिन्न मानते हैं।मार्क्सवादी चित्रकार अथवा साहित्यकार किसी भी चित्रांकन को क्रियाशील तथा किसी दलगत रूप से करता है।समालोचकों ने मार्क्स की कटु निन्दा करते हुए बताया कि वे केवल समाज पर ही बल देते हैं, उनके सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति निष्प्रभाव है।इन सबका उत्तर देते हुए मार्क्सवादी समालोचक राल्फ फॉक्स’ कहते हैं – 
“मार्क्सवाद व्यक्तित्व का निषेध नहीं करता है। यह केवल जनसमूह को ही कठोर आर्थिक शक्तियों के बन्धन से बँधा हुआ नहीं देखता। मार्क्सवाद मानव को अपने दर्शन के केन्द्र में रखता है, क्योंकि वह इस बात का दावा करता है कि भौतिक शक्तियाँ मनुष्य को परिवर्तित कर सकती हैं और साथ ही अत्यधिक बलपूर्वक इस बात की घोषणा करता है कि व्यक्ति ही भौतिक शक्तियों में परिवर्तन उत्पन्न करता है। इस क्रम में वह स्वयं को भी परिवर्तित कर देता है।” 

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