चलो शिखर की ओर

चलो शिखर की ओर 

आज जगत में  भ्रम कारा का हुआ जा रहा है विस्तार
पथ के  ढेर देखकर   बुद्धि   रह जाती है   पाकर हार
संसृति का क्रम पलट रही है मानव की बढती अभिलाषा
वैभव के उच्चाभिमान पर खड़ी हुयी है जग की आशा

चलो शिखर की ओर

दिखा सको पथ एक विश्व को हो  आगे जिस पर ध्येय

हो  विपदायें  खूब भले   पर   मिले    रात की   भोर
है पाना यदि राह निराली   चलो     शिखर   की ओर ।

विगत विश्व की छिपी प्रेरणा खोजो लाओ और दिखाओ
जब मानवता ही केवल थी तब के मंगल गान सुनाओ
हो निःशब्द खोजता यह जग नीरवता के मंथन में स्वर
मोह पाश  में  व्याकुल होकर  तड़प  रहा है भीतर उर
मिले शांति इस  मौन क्षुधा  को ऐसी  झंकृत एक मिले
जहां   मौनता  गुण  विशेष   हो   मचे  वहां  पर  शोर
है अगर बताना  सत्य  विश्व को चलो शिखर की ओर ।

झेल विपद् की चोट खोट आ चुकी मनुज के जीवन में
केवल   मृत्यु प्रतीक्षा   ही है एक मात्र  मर्यादा मन में
सृष्टि   चुनौती   रिक्त पड़ी है कौन करे स्वीकार अभी
घाटी ही बस  विश्व   बनी है कौन करे गिरि पार अभी
उनके   दृग   का हो  विस्तार  देख रहे जो  थोड़ा सा
कोई  सीमा  नहीं जगत की देखें जाने  जग को और
अगर दिखाना जग है सबको चलो शिखर की ओर ।

केवल  जीवन यापन  को ही  कर्म  मानता है संसार
क्रिया समुच्चय कुछ विशेष है बना हुआ धर्म पर भार
केवल  विपदाहीन  यात्रा है बनी हुई जीवन परिभाषा
कर्मवीरता  मात्र   स्वप्न है त्रुटि से भरी तर्क की भाषा
दिशाहीन जो कर्म हो रहा जुड़े ध्येय से एक एक कर
कर्मवीरता  ध्येय  बने फिर दृढ़ हो सृष्टि चक्र की डोर
अर्थ  कर्म  का समझाना है  चलो  शिखर की ओर ।



– अनूप सिंह 

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