जहाज़ / श्याम जयसिंघाणी की कहानी

सिन्धी कहानी

जहाज़

मूल: श्याम जयसिंघाणी
अनुवाद: देवी नागरानी 


शेरख़ान !’ पहली मंज़िल से खिड़की
पर खड़ी चम्पाबाई की आवाज़ ।

‘अभी आया बाई जी !’ जवाब में
शेरख़ान की नीचे से आवाज़।

बाई जी की बजाए जवाब में उसे
‘चम्पाबाई’ बुलाने की तमन्ना
पठान चौकीदार शेरख़ान मुद्दत
से दिल में दाबे हुए है, लेकिन
उसकी ज़बान हर रोज़ ‘बाई जी’ का
ही उच्चारण करती और इस मामले
में वह अपनी आज की आस को कल पर
छोड़ देता था।
चम्पाबाई को उसकी आवाज़ पर जवाब
देकर शेरख़ान ने अपनी मूछों
की नोकों को ख़बरदार और निहायत
ही मुलायम छुहाव से सहलाते
हुए एक लम्बी सांस ली और फिर
अपने क़दमों की भारी आवाज़ को
कम करने का असफ़ल प्रयास करते
हुए ऊपर चढ़ गया और चम्पाबाई
की कोठी के पास खड़े होकर दस्तक
दी –

‘बाई जी’
चम्पाबाई की काली मद्रासी
दासी ने मुँह बाहर निकाला ।
शेरख़ान नज़रें हटाता, इससे पहले
चम्पाबाई ज़ाहिर हुई ।

‘शेरख़ान’
‘पान, बाई जी !’
‘हाँ, ये लो !’ कहकर उसने शेरख़ान
की तरफ़ पैसे बढ़ाए । पैसे लेते
हुए शेरख़ान ने, हमेशा की तरह
एक नज़र उठाकर सीधे चम्पाबाई
की ओर देखा । उसके ढंग से सजे
बाल, या बेढंग वेषभूषा, चहरा
या ज़ुल्फ़ शेरख़ान के लिये कोई
मतलब नहीं रखते । इस एक नज़र में
मुख्य रूप से वह सिर्फ़ चम्पाबाई
की आँखें ही देखता ।

पैसे लेकर शेरख़ान वापस मुड़ा
और नीचे उतरने लगा । दरवाज़ा
बंद करती मद्रासिन दासी की
आँखें कुछ क़दमों तक उसके सुगठित
बदन का पीछा करती रहीं । शेरख़ान
को उस दासी से नफ़रत है – क़बाब
की हड्डी !
वह हर रोज़ चम्पाबाई के लिये
पान लाता था । वैसे तो वह सारे
दिन के लिये पर्याप्त मात्रा
में पान अपने पास रखती थी । फिर
भी उसे रात को ताज़ा पान खाने
की इच्छा होती थी । शेरख़ान न
फ़क़त सही वक़्त जानता, पर यह भी
जानता था कि उसका लाया हुआ पान
चम्पाबाई को बहुत पसंद आता
है ।
शेरख़ान, चम्पाबाई के मकान के
सामने वाले गोदाम का चौकीदार
। चम्पाबाई के मकान के निचले
भाग में, टूटी हुई लिफ़्ट के ऊपर
रखी अपनी खाट, रात को गोदाम के
बाहर बिछाकर बैठता, पहरा देता
या लिफ़्ट में सोनेवाले लड़के
‘काशी’ के साथ गपशप करता । काशी
मकान मालिक का ग्रामीण नौकर
था जिसके साथ वह बैठकर हुक्का
पीता, पर उसकी नज़रें सदा गोदाम
के ताले पर टिकी रहतीं ।
चम्पाबाई के लिये पान लाना
उसका एकमात्र प्रेमपूर्ण शग़ुल
रहता है, जिसके ख़याल से होती
गुदगुदाहट को भुलाना उसके बस
में नहीं । पान की बदौलत चम्पाबाई
को दो बार आमने-सामने देखने
का मौक़ा उसे मिल जाता था । पैसे
लेते और फ़रमान सुनते उसकी नज़रें
चम्पाबाई की खूबसूरत लम्बी
उंगलियों से उलझने को ख्वाहिशमंद
रहती । दोनों बार ही चम्पाबाई
की ओर से मिली मुस्कराहट को
याद करते झूमते, मुस्कराते
मूछों के कोनों को मुलायम छुहाव
से संवारते, पहनी हुई वेस्ट
कोट में रखे आईने को बाहर निकाले
बिना अपने जवान चेहरे की कल्पना
करते सलामत नीचे पहुँच जाता

कभी-कभी खाट पर बैठे-बैठे, हुक़्क़ा
पीते हुए जब वह सोच में डूबा
हुआ होता था तो चम्पाबाई, उसकी
जवानी, शुरुवाती जहाज़ और पेशा
भी उसके ख़यालों का हिस्सा बन
जाते । पेशा ! अकेले में ही अपने
कान पकड़कर आसमान की ओर देखता
गोया उसे चम्पाबाई को नंगा
देख लिया हो ।

शेरख़ान पर चम्पाबाई की निछावर
की गई मुस्कराहटें मुफ़्त न
थीं, यह राज़ सिर्फ़ टूटी लिफ़्ट
में सोने वाला काशी जानता था
कि शेर ख़ान चम्पाबाई के लिये
दुगुने पैसे भरकर पान लाया
करता था । आधे पैसे वह ख़ुद अपनी
जेब से देता था । पान वाले को
तो उसने ख़ास उत्तम तम्बाकू
की डिबिया के पैसे पहले से ही
दे दिये होते हैं ।
अक्सर शेरख़ान निर्धारित समय
के पहले चम्पाबाई के मकान पर
पहुँच जाता है, लेकिन जिस दिन
पास वाले स्टूडियो का चौकीदार
नाचाक रहा, शेरख़ान उसकी ख़िदमत
में व्यस्त रहा । उस रात तेज़
बारिश और अंधेरे की घनी परतों
में चम्पाबाई के मकान की बाहर
वाली बत्तियाँ मद्धिम लग रही
थीं, जैसे लगातार जागरण ने फ़ीकापन
ला दिया हो ।
फटी हुई छतरी के अनेक सुराख़ों
से आसमान की बदलती झलकियाँ
देखते हुए अपने गीले बालों
को सर हिला-हिला कर सुखाते हुए,
अपने बूट में जमा हुई कीचड़ से
बेज़ार ‘काशी’ मकान के पास पहुँचा,
अन्दर जाते-जाते छतरी बंद करने
की कोशिश में वह और ज़्यादा भीग
गया । बदन से कमीज़ उतारी, सर
पोंछा, कमीज़ झटकी, लिफ़्ट के कोने
में टांग दी, लिफ़्ट के ऊपर शेरख़ान
की उलटी पड़ी खाट पर से अपना
बिस्तर उठाया, लिफ़्ट की सतह
को पुरानी अख़बार के टुकड़े से
साफ़ करके बिस्तर बिछाया और
दूसरी बीड़ी जलाकर पीते हुए
ख़ान का इन्तज़ार करने लगा ।
बारिश की सुरताल बद्ध आवाज़
में उसने एक मधुर लय में घुलती
मिलती ज़नानी आवाज़ सुनी । बराबर
! चम्पाबाई शेरख़ान को आवाज़ दे
रही थी। बीड़ी का जला हुआ मुँह
ज़मीन से घिसकर कमीज़ ओढ़ी और
काशी ऊपर पहुँचा । चम्पाबाई
की कोठी का दरवाज़ा खुला था ।
दरवाज़े के पाटों के थामे काली
मद्रासिन खड़ी थी ।

‘शेरख़ान नहीं आया है क्या ?’
अंदर से चम्पाबाई की आवाज़ आई
। काशी हैरान होकर सिर्फ़ देखता
रहा ।

‘ऐ छोकरे, शेरख़ान कहाँ है ?’
मद्रासी दासी ने पूछा ।

‘अभी आया नहीं है ।’
मेरे लिये पान ले आओगे ?’ अब
चम्पाबाई का चहरा सामने आया

काशी ने सर हिलाकर हामी भरी । चम्पाबाई
ने पैसे उसकी हथेली पर धर दिये

‘कलकता सादा, सेकी हुई सुपारी,
तम्बाकू और इलायची, क्या समझे
?’

‘सादा कलकता, तम्बाकू, इलाची
और…।’

‘और सेकी हुई सुपारी याद रखो
।’

हाँ, हाँ !’ काशी वापस जाने को
मुड़ा । बंद मुट्ठी में सिक्के
रगड़ता हुआ नीचे उतरने लगा ।
आधी स़़ीढी पार की और उसका पैर
खिसक गया । ऐन वक़्त पर रेलिंग
पकड़कर ख़ुद को गिरने से बचाया
और सीढ़ी उतरते वक़्त ठीक से
ध्यान न दे पाने की अपनी ग़लती
का अहसास हुआ । उसका समस्त शरीर
यूँ काँप रहा था जैसे सच में
वह गिरा हो और अपने बेवक़ूफ़ी
पर चम्पाबाई और मद्रासिन दासी
को ख़ुद पर हँसता हुआ पाया हो

काँपते पैरों को धीरे-धीरे सीढ़ी
पर रखता हुआ वह नीचे आया । लिफ़्ट
के पीछे, कुछ कोठियों से उजाले
की लकीरें बाहर आ रही थीं । आसपास
से हँसी की आवाज़ें भी खनक रही
थीं । लिफ़्ट के पास पहुँचकर,
आधी खुली छतरी थामी, कुछ पल ख़ान
का इन्तज़ार किया और फिर बाहर
निकल पड़ा ।

श्याम जयसिंघाणी

पान लेकर लौटा । ख़ान के लिये
नज़रें यहाँ-वहाँ फिराईं और
फिर ऊपर चढ़ गया । चम्पाबाई की
कोठी का दरवाज़ा खुला था । भीतर
आईने के सामने वह अपना श्रृंगार
ठीक कर रही थी । आहट पाकर वह
पीछे मुड़ी, काशी एकदम दो क़दम
पीछे हटा ।

शेरख़ान नहीं आया क्या ?’ चम्पाबाई
ने हाथ आगे किया । नकारात्मक
ढंग से सर हिलाते हुए काशी ने
पान आगे बढ़ाया । चम्पाबाई
ने पान मुँह में डाला, जीभ से
गोल फिराते हुए, हलका चबाकर
ज़ायका महसूस किया ।                                                                                                              ‘वाह ! खूब !’ काशी के कांधे पर
थपकी देते हुए ख़ुशी के लहज़े
में कहा – ‘बिलकुल वही, कोई भी
फ़र्क़ नहीं !’

काशी चुपचाप बाहर आया, बहुत
धीमे से सीढ़ी उतरने लगा । उसे
मालूम था इस बार उसके पाँव नहीं
खिसक पाएँगे, पर धीरे-धीरे उतरते
हुए भी उसे ऐसा लग रहा था जैसे
साढ़ियाँ उसके पाँव को छूकर
जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़ रही हों
। आख़िरी पायदान पर आकर ‘ठप’
की आवाज़ के साथ उसके पांव ज़मीन
पर टिके, कुछ इस तरह जैसे उसके
पाँवों ने और सीढ़ियाँ उतरने
के प्रयास में क़दम आगे बढ़ाया
हो ।
सामने शेरख़ान हाँफ रहा था,
जैसे कहीं से दौड़ कर आया हो ।
शेरख़ान को देखकर, चाहते हुए
भी काशी के होठों पर मुस्कान
न आ पाई, सिर्फ़ उसकी ज़ुबान पर
कुछ लर्ज़िश आई ।

आज इतनी देर…… ?’
मेरा यार क़ादर बीमार था ।’
छतरी साथ होते हुए भी शेर ख़ान
भीग गया था । लिफ़्ट के ऊपर रखी
अपनी खाट उतारते वो कहता रहा
– ‘सारा दिन भटका हूँ, कभी डॉक्टर
के यहाँ, तो कभी…’ नाक के दोनों
तरफ़, आँखों के किनारों के पास,
अंगूठा और बीच वाली उँगली रखते
हुए क्षणभर के लिये आँखें मूँदी
और फुसफुसाया, खुदाया !

तुमको चम्पाबाई ने बुलाया
था ख़ान !’

सच’ शेरख़ान खाट छोड़कर ऊपर जाने
लगा ।

शेरख़ान !’
कहो…’
पान के लिये बुलाया था बाई
ने तुझे ।’

जानता हूँ ।’                                                                                         
 इस बीच बातों में शेरख़ान कुछ
सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ गया था ।

पान बाईजी के पास पहुँच गया,
शेरख़ान ।’ शेरख़ान अब रुक गया।

पहुँच गया ?’
मैंने ख़ुद लाकर दिया बाई को’
सच ?’ सीढ़िया वापस उतर आया शेरख़ान

हाँ’
कहाँ से ?’
जहाँ से तुम लाते हो…। ’
अच्छा किया दोस्त !’ शेरख़ान
खाट पर बैठा, पगड़ी उतारी, हाथ
में पकड़ा डंडा बाजू में रखा,
टाँगे फैलाईं, सर पर हाथ फेरते
हुए पूछा – ‘कितने पैसे दिये
बाई जी ने ?’

पन्द्रह’, लिफ़्ट की ओर जाते
काशी ने जवाब दिया ।

कितने वाला पान लाए ?’
तीस वाला, तुमने जो बताया था
।’

अपना नाम सुनते ही खान का हाथ
अपने आप ही मूछें सँवारने के
लिये उठा, पर मूछों तक पहुँचते-पहुँचते
रुक गया, क्योंकि उसकी ज़ुबान
से लफ़्जों को बाहर आने की ज़्यादा
जल्दी थी ।

तीस पैसों वाला ?’
हाँ ! पन्द्रह मैंने अपने शरीक
किये ।’

ख़ान कुछ पल सोचता रहा, उसकी
पेशानी की सिलवटें एक दूसरे
की ओर बढ़ रही थीं । बेस्ट कोट
की जेब से सिक्के बाहर निकाले

ये लो पंद्रह पैसे’, ख़ान ने
पैसे काशी की ओर बढ़ाए ।

काशी ने ‘न’ कहने के अंदाज़ में हलके
से सर हिलाया, पर ख़ान के चहरे
को देखते ही अपनी बेबसी भाँप
ली ।

बाई जी ने कुछ कहा ?’
तुम्हारे लिये पूछा, पहले भी
और बाद में भी ।’ सुनकर शेरख़ान
की आँखें चमकने लगीं ।

तुमसे कुछ कहा ?’                                                        
‘पान मुँह में डालकर…’
हाँ..हाँ…?’
शाबासी दी !’
ख़ान उठ खड़ा हुआ, पूछा – ‘क्या कहा
?’

कहा तो कुछ नहीं, सिर्फ़ कंधे
पर थपकी दी ।’ जवाब देकर काशी
लिफ़्ट के भीतर थोड़ा अंदर की
तरफ़ सरक गया, जैसे ख़ान के नए
सवालों के तांते से बचने का
प्रयास कर रहा हो । ऊपरी होंठ
से निचले होंठ को दबाए रखने
के कारण ख़ान की दाढ़ी के बाल
खड़े हो गए थे । काशी के बदन में
गुदगुदाहट जैसा कुछ हो रहा
था ।

तेरी उम्र कितनी है रे काशी
?’ ख़ान ने अचानक सवाल किया ।

उम्र ? अट्ठारह, उन्नीस…।’
उन्नीस… उन्नीस…, हाँ !’ खान
के दाँत ज़्यादा भींचते जा रहे
थे ।

देवी नागरानी
(अनुवादक) 
लिफ़्ट की तरफ़ बढ़कर काशी को
बाहर खींचा, ‘उन्नीस, बदमाश
!’ और काशी को बाहर खींचकर मारना
शुरू किया । रात की ख़ामोशी और
काशी का चिल्लाना । भय से आसपास
के आदमी निकल आए । ख़ान को रोकने
की कोशिश करते हुए सभी ने कारण
जानना चाहा । ख़ान जवाब देने
के बजाय, काशी पर बरसने लगा ।

क्या हुआ ख़ान ?’ उसकी बाँह पर
ज़नाना हाथ पड़ा ।

कम्बख़्त ने मेरा नुकसान कर
दिया है, चम्पाबाई ।’ ख़ान का
हाथ रुक गया और बाँह नीचे हो
गई ।

सब ने काशी की ओर देखा । वह बिलकुल
ख़ामोश खड़ा था, उस नौका सीखने
वाले मल्लाह की तरह, जो समुद्र
को जानने और उसमें उतरने से
पहले ही भांप गया था कि उसकी
छोटी नौका किसी शाही जहाज़ के
एक कोने से टकराकर साहिल के
पास ही ज़मीन में धंस गई है ।



  अनुवाद: देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिन्ध (पाकिस्तान),
8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, एक अंग्रेज़ी,
2 भजन-संग्रह,  2 अनुदित कहानी-संग्रह
प्रकाशित। सिन्धी, हिन्दी,
तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार
लेखन, हिन्दी- सिन्धी में परस्पर
अनुवाद। राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय
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जर्सी, न्यू यॉर्क, ओस्लो, तमिलनाडू
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सम्मानित। महाराष्ट्र साहित्य
अकादमी से सम्मानित / राष्ट्रीय
सिन्धी विकास परिषद से पुरुसकृत
संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33
रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ 
फोन:9987928358

श्याम
जयसिंघाणी (१९३७-२००९)
कोइट्या, बलोचिस्तान, सिन्ध (पाकिस्तान)
। कहानी सं. ४, उपन्यास – २, नाटक
सं.- २, कविता सं. – ३ तथा कुछ संपादित
और अनुवाद पुस्तकें प्रकाशित
। नए भावबोध के एवं हमेशा प्रयोग
करने वाले सशक्त हस्ताक्षर
। महानगर के पात्रों-परिस्थितियों
के कथाकार । ‘ज़िलज़िलो एब्सर्ड’
नाटक संग्रह पर १९९८ में साहित्य
अकादमी, दिल्ली द्वारा सम्मानित

पता : ८ कमल फूल सोसायटी, चेम्बूर,
मुम्बई – ४०० ०७२ 

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