जीवन की अंतिम दौड़

दौड़


क ऐसी नायिका की कहानी है जो अपने छात्र जीवन में दौड़ प्रतियोगिता में विजेता होकर अनेक पदक व तमगे प्राप्त करती है परन्तु जीवन की अंतिम दौड़ में मृत्यु से पराजित तो होती है लेकिन अपने पति को इस दौड़ में पीछे छोड़ देती है।

दौड़
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मेरी कहानी का पात्र सत्य नारायण चौबे शहर में एक पोस्टऑफिस में पोस्ट मास्टर था।सच में वह सत्य की प्रतिमूर्ति था, मित्रों और रिश्तेदारों ने उसका नाम प्यार से सत्तू रख दिया था। सत्य नारायण चौबे शहर में एक किराए के मकान में अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कामिनी के साथ रहता था। उसने अपना और कामिनी का नाम चिरस्मरणीय बनाने के लिए मकान के बाहर एक नेमप्लेट टांग थी जिस पर दोनों का मिला जुला नाम सत्य काम अंकित था।

कामिनी दुबले पतले शरीर वाली होने के साथ-साथ आकर्षक नैन नक्श वाली महिला थी। उनका पारिवारिक जीवन सुखद था लेकिन उनको एक ही दुःख था कि विवाह के दो वर्ष बीत जाने के बाद भी उनके कोई संतान नहीं थी। सत्य नारायण ने अपनी धर्मपत्नी को कई चिकित्सकों को दिखाया, ओझा से इलाज भी करवाया इसके अलावा पूजा अनुष्ठान भी कराए गए परंतु उसके सारे प्रयास निष्फल हो गये।आखिर ईश्वर को उन पर दया आ गई और कामिनी ने अपनी कोख से एक सुंदर बच्चे को जन्म दिया।बच्चे का नाम राहुल रखा गया। राहुल को अठखेलियां करते हुए देख कर उनकी थकान दूर हो जाती थी।

एक दिन कामिनी को अचानक सर दर्द की शिकायत हुई तो सत्य नारायण अपने बच्चे को पड़ोसी ताई के पास छोड़ कर अस्पताल ले गया। वहां कामिनी के टेस्ट करने के बाद उसे ब्ल्ड कैंसर बताया। सत्य नारायण ने अपनी धर्मपत्नी के इलाज में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। परंतु कामिनी को बचाया नहीं जा सका। आखिर वह चल बसी।

जिस कामिनी ने अपने छात्र जीवन में दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेकर अनेक पदक और तमगे जीते थे , वही कामिनी आज जीवन की इस अंतिम दौड़ में मृत्यु से हार गई थी। मरते समय उसके मुख मंडल पर आत्म संतुष्टि का भाव था जो यह कह रहा था कि वह पराजित होकर भी जीत गई थी। उसने अपने पति को इस अंतिम दौड़ में पराजित जो कर दिया था।

– विनय मोहन शर्मा
अलवर

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