नया सवेरा


नया सवेरा

मैं घिर गई थी
अंधकार की उस
खामोश नीरवता में
सिर्फ सुनाई देती
झींगुरों, कुक्कुरों, गीदड़ों

नया सबेरा

का भयंकर चित्कार
आगे बढ़ने के नहीं
दीख रहे थे कोई आसार।

अंधकार के साम्राज्य में
कुछ भी देखना था नामुमकिन
न कोई राह सूझती
मंजिल भी लगता बहुत दूर
मन के विचार
होने लगे थे विचलित
ख्यालों के सागर में गोते लगाते
सवाल अगणित।

तभी विचारों के भंवर में
डूबे उतरते
दीख पड़ा एक
टिमटिमाता तारा
आसमान के कोने पर
जो निशा के साए से
दिग्भ्रमित इंसानों का
पथ करता आलोकित
वह ध्रुवतारा
मेरा भी कर दिया
दिशा आलोक-युक्त।

अब मेरे मन से भी
छंटने लगी निशा की
बदसूरत कालिमा
धीरे-धीरे उभरने लगी
पूरब की ओर से
दिनकर की खुबसूरत लालिमा
बढ़ चली मैं
दिनकर से आलोकमय
एक अंजान
मगर, खूबसूरत डगर पर।

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वो और मैं

वो गीत मेरे
मैं उसकी कविता
वो शब्दों की शृंखला
मैं उसकी वाणी
वो जलधि का विस्तार
मैं उसकी लहरें
वो गहराई में
मैं उसके समतल में
वो आकाश-सा असीमित
मैं धरती की सहनशीलता
वो बादल की घनघोर घटा
मैं उसकी बारिश की बूंदें
वो नदी की अविरल धारा
मैं उसकी कलकल ध्वनि
वो दिनकर-सा आभासित
मैं पूर्णिमा की चांदनी
वो मुझमें प्रतिबिंबित
मैं उसमें प्रतिबिंबित
बस वो और मैं
जगत सृष्टि की सुंदर कृति।

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चाहत

रेणु रंजन
रेणु रंजन

खामोश निगाहों से
देखती रोज तेरी राहें
कभी भुलकर ही सही
मेरी गली में आओगे।
तुम्हारी चाहत ऐसी लगी
कि दुनिया मेरी बदल गई
हरपल की तड़प को
तुम कब आकर बुझाओगे?
सीने में धड़कते दिल से
एक ही आवाज आती
तुम ही मेरे प्राणाधार
बता कब तक सताओगे?
उदासी में कटते अब
जिंदगी के खूबसूरत लम्हें
शांत हो जाएंगी सांसें तो
यादों के गीत गाओगे।
खामोश निगाहों से
देखती रोज तेरी राहें
कभी भूलकर ही सही
मेरी गली में आओगे।

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रेणु रंजन
शिक्षिका, राप्रावि नरगी जगदीश
पत्रालय : सरैया, मुजफ्फरपुर
मो. – 9709576715
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