महाकवि सूरदास की जयंती

महाकवि सूरदास की जयंती


आज ब्रजभाषा के महान कवि सूरदास की जयन्ती है और उनकी साधना स्थली पारसौली (मथुरा से 20 कि.मी.दूर) में सन्नाटा पसरा हुआ है। केन्द्र और राज्य सरकार किसी को भी सूर की याद नहीं आई। हाय रे !भारत का दुर्भाग्य !

विकीपीडिया के अनुसार सूरदास का जन्म १४७८ ईस्वी में रुनकता नामक गांव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।
उधो, मन न भए दस बीस / सूरदास
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
पारसौली वह स्थान है, जहाँ पर कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने रासलीला की थी। इस समय सूरदास को आचार्य वल्लभ, श्रीनाथ जी और गोसाई विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती करते समय सूरदास को अनुपस्थित पाकर जान लिया कि सूरदास का अन्त समय निकट आ गया है। उन्होंने अपने सेवकों से कहा कि, “पुष्टिमार्ग का

सूरदास
सूरदास

जहाज” जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले। आरती के उपरान्त गोसाई जी रामदास, कुम्भनदास, गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास के साथ सूरदास के निकट पहुँचे और सूरदास को, जो अचेत पड़े हुए थे, चैतन्य होते हुए देखा। सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात् भगवान के रूप में अभिनन्दन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की। चतुर्भुजदास ने इस समय शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, परन्तु आचार्य वल्लभ का यशगान क्यों नहीं किया। सूरदास ने बताया कि उनके निकट आचार्य जी और भगवान में कोई अन्तर नहीं है-जो भगवद्यश है, वही आचार्य जी का भी यश है। गुरु के प्रति अपना भाव उन्होंने “भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो” वाला पद गाकर प्रकट किया। इसी पद में सूरदास ने अपने को “द्विविध आन्धरो” भी बताया। गोसाई विट्ठलनाथ ने पहले उनके ‘चित्त की वृत्ति’ और फिर ‘नेत्र की वृत्ति’ के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो उन्होंने क्रमश: बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी’ तथा ‘खंजन नैन रूप रस माते’ वाले दो पद गाकर सूचित किया कि उनका मन और आत्मा पूर्णरूप से राधा भाव में लीन है। इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया।

सूरदास से हिन्दी लेखक और हिन्दी समाज बहुत कुछ सीख सकता है। वे सिर्फ बड़े कवि ही नहीं थे। उनके पास प्रगतिशील मूल्यबोध भी था। सूरदास ने अपनी जाति की पहचान को छोड़ दिया था। हिन्दी समाज को आधुनिक बनाने के लिए यह जरूरी है कि हम जातिबोध से बाहर निकलें। सूरदास ने दानलीला के एक पद में स्पष्ट रूप में कहा है कि कृष्ण भक्ति के लिए उन्होंने अपनी जाति ही छोड़ दी थी। वे सच्चे अर्थों में हरिभक्तों की जाति के थे, किसी अन्य जाति से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था।

हिन्दी और भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवी सूरदास से आज भी जो बात सीख सकते हैं उसकी ओर ध्यान दिलाने के लिए एक किस्से का जिक्र करना जरूरी है। इस किस्से में लेखक के नए जीवन मार्ग के लिए संदेश छिपा है। वाकया इस प्रकार है- 
सूरदास की पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति सुनकर देशाधिपति अकबर ने उनसे मिलने की इच्छा की। गोस्वामी हरिराय के अनुसार प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन के माध्यम से अकबर और सूरदास की भेंट मथुरा में हुई। सूरदास का भक्तिपूर्ण पद-गान सुनकर अकबर बहुत प्रसन्न हुए किन्तु उन्होंने सूरदास से प्रार्थना की कि वे उनका यशगान करें परन्तु सूरदास ने ‘नार्हिन रहयो मन में ठौर’ से प्रारम्भ होने वाला पद गाकर यह सूचित कर दिया कि वे केवल कृष्ण के यश का वर्णन कर सकते है, किसी अन्य का नहीं।

एक किस्सा प्रसिद्ध है-
उस समय मुगल सम्राट् अकबर राज्य कर रहा था । उसके बहुत-सी हिंदू बेगमें भी थीं । उनमें से एक का नाम था “जोधाबाई” ।एक दिन जोधाबाई नदी में नहाने गयी । वहाँ उसने देखा कि एक छोटी-सी सुकुमार लड़की पानी में डूब-सी रही है । उसको दया आ गयी । उसने उस लड़की को उठा लिया और घर ले आयी तथा अपनी गर्भजात कन्या की भाँति बड़े स्नेह से उसका लालन-पालन करने लगी । जब लड़की ग्यारह-बारह वर्ष की हो गयी, तब एक दिन जोधाबाई ने देखा कि वह उसकी पेटी खोल रही है । जोधाबाई छिपकर देखने लगी कि देखूँ, वह क्या करती है ? लड़की ने पेटी खोलकर एक सुन्दर-सी साड़ी पहन ली और अपने को सजा लिया । सजकर वह ऊपर छत पर जाकर खड़ी हो गयी । वह रोज ऐसे ही करती ।
एक दिन जोधाबाई ने पुछा – ‘बेटी ! तू ऐसा क्यों करती है ?’
लड़की चुप रही, पर बार-बार आग्रह करने पर बोली – ‘माँ ! उस समय मेरा पति गाय चराकर लौटा करता है । उसके सामने मलिन वेष में रहना ठीक नहीं, इसीलिये मैं ऐसा करती हूँ ।’
जोधाबाई – ‘क्या तुम मुझको भी उसे दिखा दोगी ?’
लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया, किन्तु दूसरे दिन जोधाबाई भी ऊपर चली गयी । कहते हैं कि उस दिन उसे केवल मुरली की क्षीण ध्वनि सुनायी पड़ी ।
एक दिन जोधाबाई कुछ चिन्तित-सी बैठी थी । लड़की ने अपनी धर्ममाता से इसका कारण पूछा । माँ ने कहा – ‘बेटी ! मैं बूढ़ी हो गयी हूँ, इसीलिये तेरा पिता मुझे प्यार नहीं करता ! क्या तू मुझे एक दिन अपने हाथों से सजा दोगी ?’
लड़की ने अपने हाथ से माँ का श्रृंगार कर दिया । उधर से अकबर निकला और जोधाबाई का सौन्दर्य देखकर चकित हो गया । उसने पूछा कि ‘तुम इतनी सुन्दरी कैसे हो गयी ?’ जोधाबाई ने टालने की बहुत चेष्टा की, पर अकबर पीछे पड़ गया । अन्त में जोधाबाई ने बात बता दी और कहा कि ‘मेरी धर्म की बेटी ने मुझे इतना सुन्दर बना दिया है ।’ अकबर के मन में आया कि “मैं उस लड़की से विवाह कर लूँ ।” किन्तु ज्यों ही यह विचार आया, त्यों ही उसके शरीर में तीव्र जलन होने लगी । उसने बहुत कोशिश की कि औषध के द्वारा यह जलन मिट जाय, किन्तु पीड़ा बढ़ती ही गयी । अन्त में उसने बीरबल से उपाय पूछा । उसने कहा कि ‘आपके मन में कोई बुरा विचार आया है । आप सूरदासजी को बुलाइये । वे चाहें तो ठीक कर दे सकते हैं ।’
अकबर ने बड़ी विनय करके सूरदास को बुलाया । उनके आते ही उसकी जलन मिटने लगी । उसी समय वह लड़की वहाँ आयी और सूरदासजी से बोली – ‘आप कैसे आ गये, महात्मा जी ?’
सूरदासजी ने हँसकर कहा – ‘जैसे आप आ गयी ।’
इतने में वह लड़की फुर्र से जल गयी । वहाँ केवल थोड़ी-सी राख बच गयी । यह देखकर जोधाबाई रोने लगी ।
सूरदासजी ने जोधाबाई से कहा -’आप रोइये मत । मैं उद्धव हूँ । जब मैं गोपियों को समझाने गया था, उस समय मैं एक दिन किसी निकुञ्ज की ओर बिना पूछे चल पड़ा । सहसा वहाँ ललिताजी आ गयीं । ललिताजी ने कहा – ‘यह हमारा राज्य हैं । आप उधर मत जाइये ।’
‘मुझे बड़ा दुःख हुआ । मैंने उनको मर्त्यलोक में जन्म धारण करने का शाप दे दिया । उन्होंने भी तुरन्त वैसा ही शाप मुझे भी दिया । इसी से मैं एक अंश से सूरदास हुआ हूँ और ललिताजी एक अंश से आप के यहाँ आयी थीं ।’
सूरदास ने वह राख बटोरकर अपने सिर पर चढ़ा ली तथा वे चुप-चाप शाही महल से बाहर की ओर चल पड़े ।
– जगदीश्वर चतुर्वेदी

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