याद का दोना
क्षितिज के सिंदूरी आँचल
मुख में डालकर सूरज
सागर की इतराती लहरों पर
बूँद-बूँद टपकने लगा।
सागर पर पाँव छपछपता
लहरों की एडियों में रचाता
फेनिल झाँझरों में सजाता
रक्तिम किरणों की महावर।
स्याह होते रेत के किनारों पर
ताड़ की फुनगी पर ठोढ़ी टिकाये
चाँद सो गया चुपचाप बिन बोले
चाँदनी के दूधिया छत्र खोले
मौन प्रकृति का रुप सलोना
मुखरित मन का कोना-कोना
खुल गये पंख कल्पनाओं के
छप से छलका याद का दोना
भरे नयनों के रिक्त कटोरे
यादों के स्नेहिल स्पर्शों से
धूल-धूसरित, उपेक्षित-सा
पड़ा रहा तह में बर्षों से।
-श्वेता सिन्हा