रिश्ता

रिश्ता

बेगाना था तू मेरे लिए,
अपना कब कैसे हो गया ?
दूर दिखे पर पास लगे,
कैसा ये करिश्मा हो गया।

दूरी इतनी की पहुँच न पाऊँ,
इतना क़रीब लम्हे में पाऊँ ,

मधु शर्मा कटिहा
मधु शर्मा कटिहा

दिल,धड़कन और आँखो में तू ही,
खुद से हुई दूर तू करीब हो गया।

तेरी ही बातें करे सुबह-ओ- शाम,
रोकूं तो आँखो को भेजे पैगाम,
कैसा बेअदब दिल है मेरा ये ,
रफ़ीक़ मेरा, तेरा रक़ीब हो गया।

मदमस्त कर दिया बातों ने तेरी,
मदहोश किया यादों ने तेरी ,
मासूम जिया ये तेरी ख़ातिर,
मयख़ाना कब से हो गया ?

आज़ाद भी है, कुछ क़ैद में भी,
रिश्ता ये सबसे जुदा हो गया,
हर वक़्त करूँ इबादत मैं तेरी,
या रब ! इन्सां ये कैसे खुदा हो गया।

सुनते आए हैं कब से ये सच ,
नशे में रिश्ते बन जाते हैं कुछ,
क्या कहिए यूँ हो जाए जब,
रिश्ता ही नशा बन जाए उफ़ !!

यह रचना  मधु शर्मा कटिहा जी द्वारा लिखी गयी है . आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से लाइब्रेरी साइंस में स्नातकोत्तर  किया है . आपकी  हिन्दी पठन-पाठन व लेखन —-कुछ कहानियाँ व लेख  प्रकाशित हो चुके हैं। 

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