लिंग और हिंदी व्याकरण

लिंग और हिंदी व्याकरण

जाने कब से, पुरुष वाचक शब्द साधारणतः दोनों लिंगो – नर व नारी के लिए उपयुक्त होते हैं. किंतु नारी विशेष को इंगित करने के लिए स्त्री लिंगी शब्दों का प्रयोग जरूरी होता है ऐसा देखा गया है. समाज की वस्तुओं को नर नारी संदर्भ में जिस तरह बाँटा गया है. तदनुसार ही भाषा में (वाक्य में) उन वस्तुओं के संदर्भ में विशेषण व क्रियाओं का प्रयोग होता आया है. इस नर नारी संदर्भ का बँटवारा ही लिंग विभाजन कहलाता है. 
सामान्य बोध के लिए अक्सर पुल्लिंग शब्दों का ही प्रयोग होता रहा है. 
जैसे – “स्वाभाविकतः हरेक आदमी, कुछ हद तक स्वार्थी होता है”. 
इससे यह समझना गलत होगा कि यह केवल पुरुषों के बारे में कहा गया है. लेकिन हाँ देर- सबेर यह व्यक्त हो ही गया कि पुरुषवादी समाज के कारण ही पुल्लिंग शब्दों को प्राधान्यता दी गई है. ऐसे ही कुछ और शब्द प्रायोजित थे / हैं  – राष्ट्रपति, सभापति, अध्यक्ष, पौरुष – आदि बहुत से शब्द हैं. अंग्रेजी में तो इनकी भरमार है. चेयरमैन, मेन्युअल, मेंनपावर, मेनहेंडलिंग, मेनस्क्रिप्ट, मेनहोल, हेंडीमेन इत्यादि-इत्यादि.
भारत की भाषाओं में लिंग निर्णय के अलग अलग विधान हैं. कुछ भाषाओं में तो लिंग विधान है ही नहीं या बहुत ही कम है.
लेकिन हिंदी तेलुगु, तामिल संस्कृत भाषाओं में लिंग भाषा का एक बहुत ताकतवर अंग है. संस्कृत में तीन लिंग माने गए हैं – 
स्त्री लिंग
पुल्लिंग
नपुंसक लिंग 
हिंदी में दो ही लिंग हैं. उधर बंगाल, आसाम व अन्यपूर्ववर्ती राज्यों की भाषाओं में लिंग उतना ताकतवर नहीं है. शायद यह पास पड़ोस की भाषाओं का असर है.
जहाँ तक सप्राणों का सवाल है – स्त्री व पुरुष ( नर-मादा) का सवाल है लिंग प्रयोग में कोई ज्यादा तकलीफ नहीं होती किंतु जहाँ निर्जीव सामने आ जाते हैं तो उनके लिंग विभाजन में बड़ी कठिनाई होती है. जैसे – 
मैंनें पुस्तक पढ़ ली है. ( यहाँ पुस्तक स्त्रीलिंग है)
मुझे पुस्तक पढ ना/नी है. ( यहाँ ?)
नियम के नाम पर तो केवल कुछ गिने चुने हैं लेकिन उनमें भी कोई साफगोई नजर नहीं आती. पुस्तक तो स्त्रीलिंग ही है इसलिए पढ़नी को बहुत से लोग स्वीकारेंगे. लेकिन मुझे याद आता है कि बचपन में स्कूल के दिनों में पढ़ा था कि जहाँ कहीँ ‘ने’ का प्रयोग होता है वहाँ क्रिया पुल्लिंग ही लगती है. बाद में कई अपवाद देखे, लेकिन कोई नियम नहीं मिल पाया.
इसी कारण अहिंदी भाषी लिंग-प्रयोगों के बारे सहीं ढंग से सीख नहीं पाते. अंजाम होता है कि आप कोलकाता वाली गाड़ियों में स्त्रियों से अक्सर सुनते हैं कि –
मैं भोर में पाँच बजे कोलकाता पहुँच जाऊंगा, मेरा हसबैंड आएगी और मेरे को लेकर जाएगी. 
कई बार ऐसा सुना है. मुझे लगा भी कि उनको उनकी गलती के बारे में बताऊँ लेकिन जुबान रुक जाती है, जब एहसास होता है कि कोई नियम जानना चाहे तो कहने के लिए कुछ है ही नहीं. केवल आदतन कई वर्षों से बोलते – लिखते क्रियाओं की आदत लग गई है कोई पूछे यह क्यों ? तो जवाब इतना ही दिया जा सकेगा कि ऐसा ही होता है , बचपन से ऐसा ही करते आए हैं.

अब सरकार ने भी (उच्चतम न्यायालय ने) तीसरे लिंग की स्वीकारोक्ति दे दी है. अब देखना है कि उन पर भाषा-व्याकरण लिंग का प्रयोग किस तरह होता है. वैसे किन्नरों में शायद पहले से ही नर (प्रधान) – किन्नर और नारी (प्रधान) – किन्नरों की फर्क होता है. यदि ऐसा है तो फिर बात साफ है अन्यथा ?  कुछ वैयाकरणों ने कहा है कि नपुंसक लिंग के लिए विशेष शब्द न होने पर पुल्लिंग का प्रयोग संभव है, लेकिन क्यों ? अब भी अनुत्तरित है. कुछ ने कहा है – ऐसा इसलिए कि पुरुषवादी समाज ने अपनी मानसिकता के अनुसार पुल्लिंग को थोपना चाहा है. जहाँ कही दुविधा रही है वहाँ पुल्लिंग का उपयोग किया जाने लगा है. 
लिंग निर्धारण के विभिन्न तरह के निर्णयों अभिप्रायों को मैं यहां रखना चाहता हूँ. प्रायः सभी व्याकरणविद् मानते हैं कि –
सब मौलिक, स्वतंत्र, बड़े (महान), शक्तिशाली, निर्णायक कठोर मायनों वाले प्रभावशील शब्दों को पुल्लिंग मान लिया गया है और व्युत्पन्न, छोटे, नरम, कमजोर, परतंत्र वर्ग की क्रियाओं को स्त्रीलिंग मान लिया गया है. इस तरह से व्याकरण के लिंग में पुल्लिंग का स्त्रीलिंग पर वर्चस्व रहा है.
हर स्वतंत्र वस्तु क्रिया, विशेषण को पुल्लिंग मान लिया गया है और पराधीन (यानी अन्य शब्द से जिसकी व्युत्पत्ति हुई हो) को स्त्रीलिंग मान लिया गया है.
इसका एक कारण यह भी बताया गया है कि वैयाकरणों में स्त्रियों की संख्या नगण्य है.
पुरुषवादी सामाजिक सोच का सबसे बढ़िया उदाहरण रवींद्र कुमार पाठक जी ने अपने लेख ‘स्त्री विमर्श की दृष्टि में हिंदी व्याकरण की सृष्टि’  में इस तरह दिया – पुल्लिंग न होने के कारण तीसरे लिंग को न-पुंसक (जो पुल्लिंग नहीं है) लिंग कहा गया. स्त्री लिंग भी तो न-पुल्लिंग ही है. फिर नपुंसक लिंग कहने में क्या तात्पर्य रहा ? उसे न-स्त्रीलिंग क्यों नहीं कहा गया.  पाठक जी के तर्क से मैं पूरी तरह सहमत हूँ. इसे अलिंग या निर्लिंग कहना ज्यादा उचित होता. 
हिंदी में निष्प्राणों के लिंगों को जानने की कोई सुनिश्चित और निरपवाद नियमावली नहीं है. केवल लोक – कृत शिष्ट प्रयोग ही इस दिशा में मार्गदर्शक हो सकते हैं. 
प्रश्न उठता है अप्राणिवाचक शब्दों के लिंग का. यहाँ ज्यादातर प्रयोगात्मक आधार ही मान्य होता है. यानी जो चला आ रहा है वैसा ही प्रयोग उचित है.
व्यवहारिकता के तौर पर कहा जा सकता है कि हिंदी में लिंग निर्धारण के कुछ विशिष्ट आधार  निम्नानुसार हैं-
विशालता, गुरुता, कठोरता, रुक्षता, मजबूती, बड़ा होना – पुल्लिंग में आते हैं.
वहीं इनके विपरीत – निर्बलता, लघुता, मजदुता,नजाकत, छोटापन, कमजोर होना – स्त्रीलिंग में आते हैं.
प्राणिवाचक शब्दों में लिंग पुरुष या स्त्री बोधकतत्व पर निर्भर करता है. तोता में नर व मादा होते होंगे किंतु बोध नर का है इसलिए उसे पुल्लिंग कहते हैं.
साधारणतः पर्वत, मास, वार (दिन), पेड, रत्न, द्रव, सागर, धातु, अनाज,शरीर के अंग,जगह, देश और द्वीपों — के नाम – पुल्लिंग होते हैं. नदियाँ,बोली, भाषा ,लिपि, तिथियाँ, तारीख, अनुस्वाराँत, ईकाराँत, ऊ,त,स-काराँत संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं.
साधारणतया आ-कारांत शब्द को ई-कारांत में बदलने से पुल्लिंग स्त्रीलिंग हो जाता है. ऐसा देखा गया है किंतु उसमें भी अपवाद हैं.
स्त्रीवाची प्रत्यय ता, ती, इ, ति ( प्राणिवाचक शब्दों को छोड़कर) के जुड़ने से बने शब्द स्त्रीलिंग के होते हैं. मानवता, विवाहिता,दुष्टता इत्यादि.
उसी तरह ई, ईमा, इया, आई, औती, आनी, ट, वट, हट, आवट, ख स्त्रीवाची प्रत्यय से बने सारे शब्द स्त्रीलिंग के होंगे. लिपियों के नाम, नदियों के नाम, तारीख, तिथियाँ, नक्षत्रों के नाम प्राय़ः स्त्रीलिंग होते हैं.
इस तरह कुछ पुरुष वाचक प्रत्ययों से बने शब्द पुल्लिंग होते हैं-
त्व, आ, आव, आवा, पा, पन, ना पुरुष वाची प्रत्ययों से बने शब्द पुल्लिंग के होते हैं. 
पुल्लिंग शब्दों को स्त्रीलिंग शब्दों में परिवर्तित करने के कुछ पैटर्न दिखते हैं लेकिन उनके लिए किसी नियम के होने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता.
राऊत  – राऊताईन
मामा- मामी
मालिक –  मालकिन
शेर – शेरनी, 
हाथी – हथिनी
यह शब्द युग्म लिंग परिवर्तन के पैटर्न हैं ऐसे बहुत से शब्द युग्म मिल जाएंगे लेकिन उनका कोई नियम नहीं मिलता.
एम.आर.अयंगर
यहाँ तक तो सही है लेकिन अब बात आ जाती है कि स्त्रीलिंग व पुल्लिंग वाचक प्रत्ययों की पहचान कैसे हो… मात्र एक ही तरीका रह गया है या तो सभी को रट लीजिए या फिर व्यावहारिक ज्ञान का प्रयोग कीजिए. व्यावहारिक तौर पर न जाने कितने साल लग जाएं और तब फिर एक नया प्रत्यय सामने आ जाए तो फिर वही मुसीबत. हाँ यह तो व्यावहारिक तौर पर कहा ही जा सकता है.
अपने ब्लॉग ‘राजभाषा हिंदी’ में डॉ. दलसिंगार यादव जी लिखते हैं कि – हिंदी में तत्सम शब्दों के लिंगों को स्वीकारा गया है और तद्भव शब्दों के लिंगों को भी उसी प्रकार से निर्धारित किया गया है. विदेशी शब्दों के लिंगों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है. हिंदी के अपने शब्दों में प्रत्ययों के आधार पर लिंग निर्णय है, जिसमें कोई अपवाद नहीं है.सर्वनाम में लिंग हैं ही नहीं. शेष में आकारांत को छोड़कर किसी में लिंग का प्रावधान नहीं है.
श्री रवींद्र कुमार पाठक जी ने अपने उक्त लेख में ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं जिससे यह मानना जरूरी हो गया है कि (कम से कम) हिंदी भाषा पर तो समाज पर पुरुष सत्ता का भरपूर असर हुआ है. पहली दुविधा तो यही है कि लिंग (पुरुष) व योनि (स्त्री) की ऐसी व्याख्या की गई है कि पुरुष-प्रधान समाज की वजह से ही यह ‘लिंग’ शब्द यहाँ आया.

यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप इंडियन ऑइल कार्पोरेशन में कार्यरत है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र – एम.आर.अयंगर. , इंडियन ऑयल कार्पोरेशन लिमिटेड,जमनीपाली, कोरबा. मों. 08462021340

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