हिन्दुस्तान का सफर/ विचार मंथन

हिन्दुस्तान विविधताओं का देश है। संस्कृति, खानपान, रहन-सहन, वेशभूषा, भाषा, लिपि आदि-आदि, तकरीबन सभी क्षेत्र 
मनोज सिंह 
में जितनी विविधता इस देश में दिखाई देती है, शायद ही कहीं और नजर आती हो। ठीक इसी तरह, आवागमन के इतने साधन, एक साथ एक ही समय में, इस देश में उपलब्ध हैं, कि उंगलियों पर गिन पाना मुश्किल होगा। एक तरफ आधुनिकतम हवाई अड्डों से उड़ान भरते सुपरसोनिक निजी जेट-प्लेन तो दूसरी ओर गांव-देहात से लेकर शहर की सड़कों पर मस्त-हवाओं संग बातें करते, दौड़ते-भागते घोड़ा और बैलगाड़ी आज भी देखी जा सकती हैं। सच है पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है। मगर लगता है आधुनिकता के साथ-साथ परंपरागत साधनों को भी बरकरार रखने की हमने हरसंभव कोशिश की है। कई वर्गों व आर्थिक स्तरों पर फैली इतनी विशाल जनसंख्या की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यह आवश्यक भी था। बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों में, नये-नये उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर नयी-नयी सुविधाएं जोड़ी गई। विशेष रूप से मध्यमवर्गीय जरूरतों का विशेष ध्यान रखा गया। यही कारण बना, तभी तो छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्ण शहरों में भी हवाई अड्डे बनाये गये और आज अनगिनत हवाई जहाज तकरीबन हर रूट पर उड़ते नजर आते हैं। इस सेक्टर को निजी क्षेत्र के लिए खोले जाने पर, उत्पन्न हुई प्रतिस्पर्धा के कारण हवाई यात्रा सस्ती हुई है और यह आसानी से उपलब्ध भी है। जिसके कारण, जहां एक ओर यह सेवा आम मध्यमवर्ग की पहुंच में आ चुकी है, वहीं आधुनिकतम बिजनेस व फस्र्ट-क्लास की आरामदायक सीटें भी कई मार्गों पर पहले से बेहतर हुई हैं। कह सकते हैं कि इस क्षेत्र में चमत्कारी परिवर्तन हुए हैं। मगर फिर भी हवाई यात्रा आज भी भारत की विशाल जनसंख्या के बहुत छोटे से प्रतिशत तक पहुंच पाती है। फलस्वरूप आमजन को रेल-बसों पर निर्भर करना पड़ता है। दुनिया के सर्वाधिक घने रेल-जाल वाला देश इसे कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अब तो भारत में शायद ही कोई कोना ऐसा बचा हो जहां पर रेल-सेवा न पहुंची हो। यही नहीं, वायुमार्ग की तरह इस क्षेत्र में भी तीव्र और आरामदायक ट्रेनों की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुई है। इसके चलते कई महत्वपूर्ण शहरों की आपस की दूरियां घटी हैं। और व्यवसासियों व नियमित सफर करने वालों के लिए यह पहले से बेहतर साधन के रूप में उपलब्ध हुई। आम आदमी की यात्रा सरल और सहज हुई है। फिर भी तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण मुश्किलें कम नहीं हुई हैं और देश की बहुत बड़ी आबादी को आम ट्रेनों की सामान्य बोगियों में भीड़ बनकर सफर करते हुए देखकर कई बार आश्चर्य होता है तो दुःख और तकलीफ भी होती है। कुछ इसी तरह से भारत के मानचित्र पर बेहतर सड़कों का जाल तेजी से विकसित होते हुए देखा जा सकता है। जिस पर एक से एक बेहतरीन आरामदायक बसों को तीव्र गति से चलते देखना सुखद लगता है। विडंबना कहें, मजबूरी या आवश्यकता, इन्हीं सड़कों पर तेज रफ्तार आधुनिकतम कारें व मोटरसाइकिल के साथ-साथ टेम्पू और ट्रैक्टर से लेकर बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी भी हांफती और रेंगती नजर आती हैं। और साथ ही बगल से पैदल या साइकिल व रिक्शा अचानक गुजर जाये तो कम से कम किसी भी हिन्दुस्तानी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस तरह का मिश्रित साधनों का नजारा शायद ही कहीं और देखने को मिले। इसे अमीर और गरीब के सहअस्तित्व के प्रमाण के रूप में लिया जा सकता है। ऐसी परिस्थिति में यहां का तकरीबन हरएक वाहन-चालक विशिष्ट अनुभव बटोरता है तो यही दुर्घटना का प्रमुख कारण भी बनता है। दावे से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन दुर्घटनाग्रस्त वाहनों और यात्रियों की संख्या के मामले में हम विश्व-तालिका में काफी ऊपर आते होंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। बहरहाल, सड़कों के इस विशाल नेटवर्क में किसी-किसी रूट पर बसों की दयनीय हालत देखकर यात्रा करने में घबराहट हो सकती है। अगर आप इसके आदी नहीं हैं तो आप इससे बचना चाहेंगे। बस की छतों पर यात्रियों को सफर करते हुए देखना या गाड़ी के दरवाजे पर लटककर भीड़ को सर्कस करते हुए यहां आम देखा जा सकता है। हां, लेकिन इसी देश में, आधुनिकतम समय-काल में भी, मानवचलित रिक्शा और हाथ-ठेला का चलन, शर्म से हमारी आंखें झुका देता है। संक्षिप्त में कहें तो विकास के नाम पर इतना सब होने के बावजूद भी ऐसा महसूस होता है कि आवागमन के इस क्षेत्र में बहुत कुछ किया जा सकता है। इस सफर के सेक्टर को तकरीबन प्राइवेट कंपनियों के लिए काफी हद तक खोलने के बावजूद भी कई दो महत्वपूर्ण शहरों के बीच में आने-जाने के बेहतर साधन उपलब्ध नहीं हैं। कई स्थानों पर यात्री पैसा देने को तैयार हैं फिर भी अच्छी सुविधा उपलब्ध न होने के कारण वे तकलीफ में सफर करने के लिए बाध्य होते हैं। कई बार तो प्रथम द्रष्टया इसके पीछे कोई कारण समझ नहीं आता, जबकि कुछ पूंजी लगाने पर आसानी से बहुत कुछ कमाया जा सकता है। संक्षिप्त में कहें तो यह हर हाल में लाभप्रद ही होगा। तो फिर क्या कारण है जो यहां आवश्यकतानुसार पूंजी निवेश नहीं हो रहा? कहा जा सकता है कि या तो बड़े व्यवसासियों की निगाह में यह आया नहीं है या फिर इस धंधे की और कई मजबूरियों और अड़चनें हैं जो आमजन की जानकारी में नहीं, जिसके कारण व्यवसायी इस क्षेत्र में पैसा लगाने से बचते हैं। बात यहीं आकर नहीं रुक पाती, कई स्थानों पर सुख-सुविधाओं वाले अच्छे साधन के साथ-साथ उपयोगी यात्रियों की उपलब्धता के बावजूद उस रूट का व्यवसाय लाभप्रद अर्थात सफलतापूर्वक नहीं चल पा रहा। विश्लेषण करने पर इसके पीछे स्थानीय प्रशासन की दखलअंदाजी और संबंधित व्यावसायिक घरानों के मैनेजमेंट की कमजोरियां ही अधिक प्रमुखता से कारण बनती नजर आती हैं। ऐसा भी नहीं कि इस देश में सभी यात्री पैसा देने के लिए तत्पर हैं। आबादी का बहुत बड़ा वर्ग सस्ती से सस्ती यात्रा का किराया देने की स्थिति में भी नहीं है। गरीबी की हालत यह है कि लोग बेटिकट यात्रा करने के लिए मजबूर हैं तो कहीं-कहीं यह हमारी अराजक मानसिकता का भी परिचायक बन जाता है। बहरहाल, आम आदमी सामान्य किराये में ही किसी भी तरह सफर करने का आदी हो चुका है। मगर जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं वे आज भी अधिकांश स्थानों पर उचित सुविधा से वंचित हैं। और जो पैसा दे पाने का सामथ्र्य नहीं रखते वे जानवरों की तरह बसों में भरकर, रेल के डिब्बों में ठूंसकर, कहीं-कहीं जान हथेली पर रखकर, बस-ट्रेन के गेट के पायदान पर लटक कर, यहां तक कि छत पर सफर करने के लिए मजबूर हैं। दो वक्त की रोजी-रोटी कमाने के लिए, जनसंख्या का एक विशाल वर्ग, अपने गांव व शहर के बीच, हर तरह की मुश्किलों के बाद भी लगातार सफर करने के लिए मजबूर है। वो भिन्न-भिन्न किस्म की मुश्किलों का सामना करता है। उन्हें किस-किस भयानक कठिन रास्तों से गुजरना होता है, कल्पना करना भी मुश्किल होगा। एक दूसरा वर्ग है जो नौकरी-पेशा के सिलसिले में आसपड़ोस के क्षेत्र में रोज सफर करने के लिए मजबूर है। इनकी अपनी मुसीबतें हैं मगर यह उसका आदी हो जाता है। और सफर के बीच ही अपने साथी-संगी बनाकर टाइम-पास करते-करते खुशियां बटोरने के विभिन्न उपाय ढूंढ़ लेता है। दूसरी ओर, पिछले कुछ वर्षों में पर्यटन के लिए घूमने-फिरने जाने वाले यात्रियों की संख्या भी अचानक बढ़ी है। परिणामस्वरूप इस सेक्टर पर दबाव बढ़ा है। नाते-रिश्तेदार, घर-परिवार में शादी एवं विभिन्न त्योहारों में मिलने-जुलने के लिए जाने वालों का एक अपना बड़ा वर्ग पारंपरिक रूप से आज भी सफर करता है। उधर, बड़े शहरों में कइयों के जीवन का एक बहुत बड़ा समय-काल मेट्रो, लोकल और ट्राम-बसों में गुजर जाता है। इन डेली पैसेंजर में से अधिकांश सोते हुए सफर करते हैं। कहीं-कहीं युवावर्ग आजकल लैपटाप पर खेलते मिल जायेंगे तो परंपरागत दैनिक यात्री रेल-बसों में, ताश-पत्ते और गपशप मारते हुए, जीवन के सुख-दुःख को कई बार ये सफर में ही, आपस में बांट लेते हैं। कहीं-कहीं तो घर में सोने के अतिरिक्त रहने के घंटों से अधिक इन लोगों का दिन सफर में ही गुजर जाता है। संक्षिप्त में कहें तो इन सभी भिन्न-भिन्न वर्गों की आवश्कताएं भी भिन्न हैं तो खर्चा करने की क्षमता भी अलग-अलग है। विशाल जनसंख्या को देखते हुए शायद इस क्षेत्र में अब भी उतना काम करना बाकी है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। और आज भी यह कड़वा सच है कि समय पर अच्छी सेवा उपलब्ध न होने के कारण कई यात्री कष्ट भोगने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यात्रा के पल को यादगार, सुखद और आरामदायक बनाने के लिए शायद इस क्षेत्र के व्यवसायियों, संबंधित विभाग के साथ-साथ यात्रियों को भी सोचना और समुचित प्रयास करना होगा।
 
 यह लेख मनोज सिंह जी द्वारा लिखा गया है . आप कहानीकार ,स्तंभकार तथा कवि के रूप में प्रसिद्ध है . आपकी 'बंधन',व्यक्तित्व का प्रभाव ,कशमकश' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है .

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