चलो सजनी/ कुमार रवीन्द्र के नवगीत

कुमार रविन्द्र

चलो, सजनी
इस अधूरे आखिरी दिन को                 
  यहीं पर हम सिरायें  
थक चुके हम
धूप भी है थकी-हारी 
हुई बोझिल 
साँस भी तो है हमारी 
पूर्व इसके 
घुप अँधेरे हों नदी पर              
  घाट पर दीये जलायें 
सूर्य-रथ भी
रक्त में, देखो, नहाया 
आयने में अक्स भी
लगता पराया  
हो रहीं अंधी 
इधर,देखो, हमारी          
  देह की आदिम गुफाएँ  
राख झरती 
फूल की पगडंडियों पर
यह समय है कठिन –
सूखे नेह-पोखर  
आयेगा जो कल 
उसे दें, सुनो, सजनी         
  साँझ-बिरिया की दुआएँ

यह रचना कुमार रवीन्द्र जी की है . आपने नवगीत में अभिनव प्रयोग किये हैं |कथ्य शिल्प ,संवेदना
सहित तमाम साहित्यिक विशिष्टियों को समेटे यह उदारमना कवि आज भी हिन्दी
नवगीत और साहित्य को समृद्ध कर रहा है |
आपका  जन्म 10 जून 1940 को लखनऊ में हुआ था |सन 1958 में
इन्होंने लखनऊ विश्व विद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि
हासिल किया |
इनकी कृतियाँ है – आहत हैं वन ,चेहरों के अंतरीप,पंख बिखरे रेत पर ,सुनो तथागत ,और हमने संधियाँ की( नवगीत संग्रह) लौटा दो पगडंडियाँ (कविता संग्रह)एक और कौन्तेय ,गाथा आहत संकल्पों की ,अंगुलीमाल ,कटे अंगूठे का पर्व ,कहियत भिन्न न भिन्न  आदि है . आप उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हरियाणा साहित्य अकादमी और अन्य पुरष्कारों
द्वारा पुरष्कृत है तथा इनकी  कविताएं या गीत देश की प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं
में प्रकाशित होती रहती हैं |

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