बरसात की रात

अपने खिलाफ

चिर परिचित है 
कितनी मेरे लिए 
यह बरसात की रातें 
जब भी सुनता हूं 

बरसात की रात

झिंगूरों की आवाजें 
इसके सन्नाटे 
मेरा अज्ञात 
धीरे-धीरे ज्ञात होने लगता है 
जब भी सुनता हूं 
इसके सन्नाटे 
मुझमें कहीं टूटा हुआ 
कोई नजर आता है 
जो अज्ञात है 
धीरे-धीरे ज्ञात होने लगता है 
यह रातें 
इसके सन्नाटे 
मुझें बहुत प्रिय हैं 
वहां मैं सचमुच ठहर जाता हूं 
जहां ज्ञात  
जिद्दी जिजीविषा भरा मेरा सुकून 
धीरे-धीरे ज्ञात होने लगता है 
चिर परिचित है कितनी 
मेरे लिए यह बरसात की रातें 
जब भी सुनता हूं इनके सन्नाटे 
जहां मैं झूठ-झूठ नही 
कितना सच होता हूं…..

– राहुलदेव गौतम

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