बलात्कार का मनोविज्ञान

बलात्कार समाज – मनोविज्ञान कारक 

बलात्कार का मनोविज्ञान मनोविज्ञान की नजर से बलात्कार का कारण psychology of rape नर नारी में विपरीत लिंगी होने के कारण परस्पर आकर्षण होना स्वभाव सिद्ध नारी को प्रत्यक्ष अथवा चित्र में देखकर पुरुष देव का आंतरिक तथा बाह्य तंत्र गड़बड़ा जाता है और जो विकार उत्पन्न होते हैं या दिखलाई पड़ते हैं वे प्राकृतिक होते हैं अर्थात उन पर पुरुष का वश नहीं चलता इच्छाशक्ति निरपेक्ष होते हैं कारण वही है संवेगीक असंतुलन—
“automatic system is that part of nervous system which controls the activity of viscera. Its actions are generall unconscious and independent of ‘will ‘ . consequently the motor processes are all reflex action … The activities of the somatic and automatic systems always run parallel . Because at each important level of The nervous system, there are free inter communication between these two systems. (Human physiology) 
स्त्री का चित्र या दर्शन मात्र करने से भी पुरुष चित्त विकृत हो जाता है और उसमें कामातुर व्यवस्थाएं प्रत्यक्षीकृत करने वाले अनुभाव सहज ही प्रकट हो जाते हैं । कामातुर पुरुष प्रकृतित: चेतन व अचेतन के विषय में विवेकहीन होते हैं ।
” कामार्ता हि प्रकृतिकृपणा चेतनाचेतनेषु ” 
यही मनोविज्ञान है , कि कामातुर पुरुष मर्यादा नहीं जानता और अपनी कामेच्छा पूर्ति के लिए , वह किसी भी कपट का सहारा ले सकता है । स्पष्ट शब्दों में कामान्ध में विवेक नहीं होता । 
बलात्कार के मनोविज्ञान को समझने के लिए पहले हमें अपने मन का विज्ञान समझना होगा। कम कपड़ों में लड़की, पहनावा आदि किसी भी रूप में इस प्रकार की घटनाओं के उत्प्रेरण नहीं हैं, हाँ अवसर की सम्भावना व्यापक होती है। रात के अँधेरे में सड़क पर जाती हर अकेली लड़की के साथ बलात्कार नहीं होता है। रात को टहलने वाला हर पुरुष बलात्कार करने की नीयत से ही नहीं टहलता है। अवसर की तलाश में रहते हैं वे लोग जो अपनी मानसिकता में किसी भी स्त्री-शरीर से सम्बन्ध बनाना चाहते हैं।
बलात्कार को सख्त कानून से नहीं रोका जा सकता। काम का वेग इतना होता है कि जब यह उद्दाम वेग किसी के सिर पर चढ़ता है तो उस समय उसे कोई कानून नहीं दिखाई देता। एक महत्वपूर्ण तथ्य मेरे अनुसार ये है कि , जितना कानून सख्त होता जाता है उतना ही बीमारी और जटिल हो जाती है। यानि बलात्कार पर सख्त से सख्त कानून के आते-आते, बलात्कार के बाद स्त्रियों की हत्याएं अधिक होने लगी। सबूत मिटाने के लिए हत्या कर दी जाती है।

आक्रामकता और हिंसा, दो अलग अवधारणाएं

कभी-कभी यह सोचा जाता है कि आक्रामकता और हिंसा दो समान वास्तविकताएं हैं, लेकिन ऐसा नहीं है. आक्रामकता हमारी सहज टीम का हिस्सा है। हम उसके साथ पैदा हुए हैं और हमारे पास उसका ब्रांड है शारीरिक रूप से मुद्रित. इसमें भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं की एक श्रृंखला शामिल है जो हमारे बारे में पता किए बिना स्वचालित रूप से शुरू होती है.
आक्रामकता जैविक है। यह हमें खतरे की स्थिति में सतर्क स्थिति में प्रवेश करने में मदद करता है. साथ ही यह आवश्यक है कि यह आवश्यक हो और पर्यावरण के अनुकूल हो। यह सामान्य और स्वस्थ है कि, उदाहरण के लिए, हम आक्रामक रूप से प्रतिक्रिया करते हैं यदि कोई हमें गिरने के लिए धक्का देने की कोशिश करता है। अस्तित्व के लिए हमारी प्रवृत्ति का मतलब है कि इस खतरे के जवाब में हम इशारों या आक्रामक कार्यों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं.
हिंसा
दूसरी ओर, हिंसा सांस्कृतिक है. उन सभी व्यवहारों से मेल खाती है जो हमारी अखंडता के उद्देश्य संरक्षण के अलावा अन्य कारणों से नुकसान पहुंचाते हैं। केवल मानव प्रजातियों में हिंसक व्यवहार होता है, कोई अन्य जानवर इस प्रकार का व्यवहार नहीं करता है.
इसलिए, हिंसा सीखी जाती है. आक्रामकता सहज है, लेकिन हिंसा प्रतीकात्मक है. इसका मतलब है कि हम दुनिया में आक्रामक उपकरण के साथ आक्रामक तरीके से प्रतिक्रिया करने के लिए आते हैं, जब जीवन और अखंडता को बनाए रखना आवश्यक होता है। लेकिन अलग-अलग कारणों से दूसरों को चोट पहुँचाने की इच्छा और प्रवृत्ति सिखाई जाती है । 
लगभग सभी हिंसक लोग किसी गलत कारण से अपने व्यवहार को सही ठहराते हैं. अधिकांश का तर्क है कि यह दूसरों को खुद का बचाव करने, या कुछ सकारात्मक सिखाने या प्रेरित करने के लिए दर्द देता है। पीड़ित को उसके खिलाफ हिंसा भड़काने के लिए दोषी ठहराया जाना भी आम है। और उच्च सिद्धांतों के लिए यह असामान्य नहीं है, चाहे वह धार्मिक हो या राजनीतिक.
बलात्कार के लिए एक बेहद स्वस्थ समाज की जरूरत होती है, जहां स्त्री-पुरुष समान हो, उनका मिलना-जुलना सहज हो, सरल हो, उनके बीच रिश्ते बहुत ही पवित्रता के साथ बन सकते हों, सेक्स का दमन जरा भी न हो, इसे एक प्राकृतिक भेंट समझकर उसे स्वीकारा जाए, उसकी निंदा जरा भी न हो।
सारे जनहित याचिकाओं के बावजूद सारे न्यायिक सक्रियता के छाया युद्ध के बावजूद क्या हम बलात्कार की शिकार महिलाओं को का कोई राहत दे पाए न्यायपालिका में क्या सुधार हो यह हमारी प्राथमिकता कभी नहीं रही ।यही वजह है कि इतने वर्षों में भी कानून व्यवस्था में आम आदमी की आस्था हम पैदा नहीं कर पाए। आस्था हो भी तो कैसे ? देश की अदालतों में लाखों मुकदमे सालों से विचाराधीन पड़े हैं और हर रोज यह संख्या बढ़ती जा रही है । समाज में एक खास तरह का भ्रम फैलाया जा रहा है कि बहुत से सुधारवादी कानून बनाए गए हैं, बाल विवाह के खिलाफ ,दहेज हत्या के खिलाफ , वगैरा-वगैरा । लेकिन उनको सही ढंग से लागू नहीं किया जाता है इसलिए यह सभी बातें कोरी लफ्फाजी हैं। अन्याय -शोषण और हिंसा की शिकार स्त्रियों के लिए घर परिवार की देहरी से अदालत के दरवाजे के बीच बहुत लंबी चौड़ी गहरी खाई है जिसे पार कर पाना बेहद दुस्साध्य काम है। इसीलिए कई बार लोगों को लगता है कि न्यायपालिका की मदद के बिना ही न्याय पा लेने की कोशिश ना करने लगे जैसा कि अभी हैदराबाद के बलात्कारी आरोपियों के एनकाउंटर में हुआ । न्याय मिलने में विलंब का अर्थ है, न्याय का न मिलना । तो फिर क्या पीड़ित के साथ न्याय हो रहा है ? या ऐसे में न्याय हो भी सकता है या नहीं । ?अगर न्याय सस्ता और शीघ्र सुलभ हो ही नहीं सकता तब क्या यह जरूरी नहीं कि पूरी कानून व्यवस्था में आमूल -चूल परिवर्तन हो । ताकि हर पीड़िता के साथ न्याय हो सके ।
अब समय आ गया है कि लड़कियों की अपेक्षा लड़कों पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए । माँ बाप का सामूहिक दायित्व है कि बच्चों (लड़के/लड़की ) के हार्मोनल व्यवहारिक बदलावों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और मार्गदर्शन करते रहें ताकि समय रहते उनको गलत रास्ते पर जाने से बचाया जा सके. किन्तु अफ़सोस इस बात का है कि हमारे समाज मे सेक्स की खुल कर बातें करना निंदनीय है । स्कूलों में भी इस विषय को लेकर कभी स्वस्थ चिंतन नही होता । 


– डॉ निरुपमा वर्मा 
एटा उ.प्र. 
Mobile number 9412282390

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