मैं वो घर बना रहा था

तालाब का पानी

हुत दिनों से,
खुद के पास आने की 
कोशिश कर रहा था।
मुझे क्या मालूम,
जिसमें मुझे रहना ही नही
मैं वो घर बना रहा था।
मैंने सपनें चुन-चुन कर
तुम्हें अपना एक शहर बनाया था।
अफसोस यह है कि इतनी महंगाई में,
मैं तुम्हारा बाशिंदा कभी,
बन ही नही पाया था।
मैं वो घर बना रहा था

मैंने तुम्हें सर्द रातों की तरह

चाहा है,
अब इंतजार है…
तुम गर्म लिबास की तरह
मेरे जिस्म से लिपट जाओ।
2. हर मुल्क की नयाब
सुबह,
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
विश्व धरा पर
बिखरी ओंस की
अंतिम क्षण
बस वहीं
वहीं तुम हो।
हर नदियों की
खिलखिलाहट
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
साॅ॑झ तले
जलते दीये की लौ के पास 
झुकी हुई किसी बच्चे की मुस्कुराहट 
बस वहीं, 
वहीं तुम हो। 
पहाड़ों से गिरते 
झरनों की अमर संगीत 
बस वहीं,
वहीं तुम हो। 
खेतों की हरियाली!
फसलें,सूरजमुखी के झुके फूल 
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
चीटियों की पगडंडियां
उनके सफर,
उनकी जिद्दोजहद।
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
गेहूं की बालियों की
झूरमुटों से,
उड़ती अचानक नन्ही चिड़िया
सरसों के फूलों से
अठखेलियां करती,
तितलियों का बांकपन
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
माॅ॑ के नरम,
हाथों की ऑंच
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
हालातों से टकरा कर
जब-जब मैं कहीं
स्वार्थी बना,
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
और ईमानदारी से
कहीं भी खुद को जीता हुआ पाया
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
सच और झूठ के बीच
ये जो तर्क की दुनिया है न
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
और असत्य में
जितने सत्य है,
और सत्य में
जितने असत्य है
ये जो शाश्वत सामंजस्य है न
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
ये जो नया है,
पुराना है।
ये जो भौतिक है,
रासायनिक है
ये जो इन सबका नियम है
समय है न
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
न भूतो न भविष्यत्
जो होने वाला है
और जो होगा
वतर्मान बनकर!
बस वहीं,
वहीं तुम हो।

– राहुलदेव गौतम 

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